बचपन बड़ा हो रहा है !!!
बचपन शब्द सुनते ही सारी यादें ताज़ा हो जाती हैं । वो माँ की गोद में खेलना , वो मासूमियत से शैतानियाँ करना , वो अपने प्लानेट (planet) को ऐलिएन्स (aliens) से बचाना , वो पुलिस बनकर चोर को पकड़ना , वो सुपरमैन जैसी शक्तियाँ आ जाए तो क्या करेंगे सोचना , वो नई नई चीजों के लिए माँ - बाप से ज़िद्द करना । और भी कई सारी ऐसी यादें हैं जो की एक शब्द बचपन सुनते ही आखों के सामने आ जाती है और चेहरे पर एक छोटी सी मुस्कान आ जाती है , जो की होती तो छोटी सी ही है लेकिन बहुत गहरी होती है ....।
आज की वास्तविक्ता और भौतिक्ता मे खोते हुए शायद हमने वो बचपन जीना छोड़ दिया है , क्यूँ की हम अब बड़े हो गए हैं , हमपे कुछ ज़िम्मेदारियाँ आ गयी हैं , हमे अपने सपने पूरे करने हैं , हमे एक बड़ा आदमी बनने का ख्वाब जो पूरा करना है और अगर आज के समय के लिए बोलें तो ढेर सारा पैसा कमाना है । वक़्त की इसी चकाचौंध मे न जाने कहाँ हमारा दिल और हमारी भावनाएँ कहीं खो गयी है । बचपन का मतलब वो समय नहीं होता जब हम छोटे होते हैं । बचपन वो समय होता है जब हमारे दिल मे छल , कपट , किसी के प्रति गलत भावनाए और ईर्ष्या भाव नहीं होता या कहें तो हमारे दिल मे एक मासूमियत होती है और खुशी से भरा होता है । आज के इस समय मे जहां एक ओर सभी मे ज़्यादा से ज़्यादा पैसे कमाने की और सभी भौतिक सुख सुविधाओं को पाने की होढ़ लगी है, वहीं दिल मे एक अजीब सी बेचैनी भी है । सारी सुख सुविधाओं को पाकर भी इंसान खुश नहीं है । इंसान के पास खूब पैसे है , अच्छा खाने को है , अच्छी जगह रहने को है , लेकिन फिर भी किसी न किसी कारण वो बीमार हो जाता है । बीमारियाँ जैसे की हाइपरटेंशन , डियाबेटिस , हार्ट प्रॉब्लेम्स , आस्थेमटिक प्रॉब्लेम्स , इत्यादि ... इन बड़ी - बड़ी बीमारियों का कारण कोई बाहरी बैक्टीरिया वाइरस नहीं है , हाँ अगर विज्ञान के तौर पर देखा जाये तो है लेकिन असलियत मे ये हमारे मस्तिष्क के व्यस्त रहने और इस बेमतलब की होढ़ मे सबसे आगे निकालने की चाहत इन बीमारियों का असली कारण है ,हमारे अंदर ही ये एक वाइरस की तरह है जो की पनप्ति जा रही है और हमे खुश नहीं रहने देती । इंसान को खुश रहने की ज़रूरत है ना की पैसे की । लोग कहते हैं की पैसा ही सब कुछ है , गलत !! हाँ पैसा बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नहीं । ये ज़रूरी नहीं की सारी सुविधाएँ हो तभी इंसान खुश रह सकता है , क्यूंकि दो वक़्त की रोटी कमाने वाला भी खुश रह सकता है और करोड़ों रुपये कमाने वाला भी । ये बस वक़्त और हालत को हम किस नज़रिये से देखते हैं इस पर निर्भर करता है । मुझे याद है कुछ समय पहले मैंने किसी न्यूज़ चैनल पर देखा था जहां एक बूढ़ी औरत जिसे महीने के लिए बस 300 रुपये सरकार की तरफ से मिलते हैं और वो एक छोटी सी झोपड़ी मे रहती है लेकिन उसके चेहरे पर किसी तरह का तनाव या शिकायत नहीं है , वो ये राग नहीं अलापती की महंगाई बढ़ती जा रही है , मुझे अच्छे से खाना नहीं मिलता, या मुझे रहने को अच्छा घर नहीं है । वो बस खुश रहती है । उससे जब पूछा गया की आखिर वो इतनी खुश कैसे है इतनी महंगाई में तो उसने बस इतना बोला की " ज़िंदगी 300 रुपये मे भी गुज़ारी जा सकती है और 3 लाख भी कम पड़ जाते है " और इस एक पंक्ति ने मेरे हृदय को झंझोढ़ कर रख दिया । हाँ ये मानता हूँ कि भौतिक सुविधाएँ भी ज़रूरी हो जाती हैं आज के वक़्त में, पर मुद्दा वो नहीं है । मुद्दा है कि क्या हमारे पास जितना है हम उसमे संतुष्ट रह सकते हैं , खुश रह सकते हैं । अगर हाँ तो आप हुमेशा खुश रहेंगे और हुमेशा हँसते खेलते जिएंगे । आप अभी भी बचपन ही जी रहे हैं । वो बचपन जी रहे हैं जहां आपके ज़हन में चिंता नहीं अपितु ये एक जो ज़िंदगी मिली है उसे खुल के जीने कि चाहत है और ऐसा करने पर आप न ही बेतुकी बीमारियों से ग्रसित रहेंगे और ना ही किसी और चीज़ से बल्कि आप अपनी ज़िंदगी को खुलके जिएंगे और ज़िंदगी के सही माएने आपको समझ आएंगे । ज़िंदगी ज़िंदगी जैसी लगेगी ना कि एक बोझ ।
एक और बात जो कि मेरे ज़हन मे आती है जब भी मैं आज के समय को देखता हूँ कि हम अपनी इस व्यस्तता के चलते अपने बच्चों पर भी ध्यान नहीं दे पाते जिसके चलते बचपन से ही उनमे बचपन मे दिये जाने वाले संस्कारों का ह्रास होता जा रहा है । आज हमारी माँ , माँ नहीं रही वो मम्मी (mummy) बन गयी है । पिता हमारे डैड (dad) हो गए है । हमारा देश जो कि ऋषि - मुनियों कि कर्मस्थली थी जो कि सोने कि चिढ़िया थी आज क्या से क्या हो गयी है । सोने कि चिढ़िया हमारे यहाँ के धन - धान्य को नहीं अपितु हमारे सुनहरे संस्कारों को कहा गया है । कहाँ गयी वो परंपरा जहां बच्चे अपने माँ - बाप के पैर छूकर आशीर्वाद लिया करते थे जो कि अब हाए डैड और हाए मौम में परिवर्तित हो गयी है । हाँ दुनिया बदल रही है हमे भी आधुनीकरण कि ज़रूरत है । आधुनिक्ता कि और अग्रसर रहिए लेकिन अपनी संस्कृति और अपने देश के नैतिक मूल्यों के बदले नहीं । हमारे देश के बच्चे जो कि कभी पकड़म - पकड़ी और छुपन - छुपाई जैसे खेल खेलते थे आज वो मार - धाड़ और क्र्रूरता से भरे खेल खेलते हैं जैसी कि काउंटर स्ट्राइक ,आई .जी .आई ,इत्यादि । बचपन से ही बच्चों कि मानसिकता में मर्मता नहीं रह जाती और खून - खराबा भर जाता है तो आप इससे आशा ही क्या कर सकते हैं ..?? क्या इस तरह से ये नौजवान बनकर देश का नाम रौशन करेंगे ..?? आप खुद ही सोचिए ऐसे युवा स्वामी विवेकानंद बनकर देश का नाम रौशन करेंगे या अजमल कसाब जैसे बनकर देश का और अपने माँ - बाप का नाम बर्बाद करेंगे । हमारा देश जो कि पतन कि ओर अग्रसर है उसका यही कारण है अगर हमारे देश को वापस से सोने कि चिढ़िया बनाना है तो अपने संस्कारों को वापस बनाइये । अपनी खुशी को वापस लाइये , अपने हँसते खेलते बचपन को वापस लाइये जो कि शायद अब बड़ा होता जा रहा है । एक बार उस बचपन को जीकर देखिये क्यूंकि यही बचपन हमे खुश और सम्पन्न बनाता है । रोक लीजिये इस बचपन को बड़ा होने से , बचपन बड़ा हो रहा है । । ।
बचपन शब्द सुनते ही सारी यादें ताज़ा हो जाती हैं । वो माँ की गोद में खेलना , वो मासूमियत से शैतानियाँ करना , वो अपने प्लानेट (planet) को ऐलिएन्स (aliens) से बचाना , वो पुलिस बनकर चोर को पकड़ना , वो सुपरमैन जैसी शक्तियाँ आ जाए तो क्या करेंगे सोचना , वो नई नई चीजों के लिए माँ - बाप से ज़िद्द करना । और भी कई सारी ऐसी यादें हैं जो की एक शब्द बचपन सुनते ही आखों के सामने आ जाती है और चेहरे पर एक छोटी सी मुस्कान आ जाती है , जो की होती तो छोटी सी ही है लेकिन बहुत गहरी होती है ....।
आज की वास्तविक्ता और भौतिक्ता मे खोते हुए शायद हमने वो बचपन जीना छोड़ दिया है , क्यूँ की हम अब बड़े हो गए हैं , हमपे कुछ ज़िम्मेदारियाँ आ गयी हैं , हमे अपने सपने पूरे करने हैं , हमे एक बड़ा आदमी बनने का ख्वाब जो पूरा करना है और अगर आज के समय के लिए बोलें तो ढेर सारा पैसा कमाना है । वक़्त की इसी चकाचौंध मे न जाने कहाँ हमारा दिल और हमारी भावनाएँ कहीं खो गयी है । बचपन का मतलब वो समय नहीं होता जब हम छोटे होते हैं । बचपन वो समय होता है जब हमारे दिल मे छल , कपट , किसी के प्रति गलत भावनाए और ईर्ष्या भाव नहीं होता या कहें तो हमारे दिल मे एक मासूमियत होती है और खुशी से भरा होता है । आज के इस समय मे जहां एक ओर सभी मे ज़्यादा से ज़्यादा पैसे कमाने की और सभी भौतिक सुख सुविधाओं को पाने की होढ़ लगी है, वहीं दिल मे एक अजीब सी बेचैनी भी है । सारी सुख सुविधाओं को पाकर भी इंसान खुश नहीं है । इंसान के पास खूब पैसे है , अच्छा खाने को है , अच्छी जगह रहने को है , लेकिन फिर भी किसी न किसी कारण वो बीमार हो जाता है । बीमारियाँ जैसे की हाइपरटेंशन , डियाबेटिस , हार्ट प्रॉब्लेम्स , आस्थेमटिक प्रॉब्लेम्स , इत्यादि ... इन बड़ी - बड़ी बीमारियों का कारण कोई बाहरी बैक्टीरिया वाइरस नहीं है , हाँ अगर विज्ञान के तौर पर देखा जाये तो है लेकिन असलियत मे ये हमारे मस्तिष्क के व्यस्त रहने और इस बेमतलब की होढ़ मे सबसे आगे निकालने की चाहत इन बीमारियों का असली कारण है ,हमारे अंदर ही ये एक वाइरस की तरह है जो की पनप्ति जा रही है और हमे खुश नहीं रहने देती । इंसान को खुश रहने की ज़रूरत है ना की पैसे की । लोग कहते हैं की पैसा ही सब कुछ है , गलत !! हाँ पैसा बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नहीं । ये ज़रूरी नहीं की सारी सुविधाएँ हो तभी इंसान खुश रह सकता है , क्यूंकि दो वक़्त की रोटी कमाने वाला भी खुश रह सकता है और करोड़ों रुपये कमाने वाला भी । ये बस वक़्त और हालत को हम किस नज़रिये से देखते हैं इस पर निर्भर करता है । मुझे याद है कुछ समय पहले मैंने किसी न्यूज़ चैनल पर देखा था जहां एक बूढ़ी औरत जिसे महीने के लिए बस 300 रुपये सरकार की तरफ से मिलते हैं और वो एक छोटी सी झोपड़ी मे रहती है लेकिन उसके चेहरे पर किसी तरह का तनाव या शिकायत नहीं है , वो ये राग नहीं अलापती की महंगाई बढ़ती जा रही है , मुझे अच्छे से खाना नहीं मिलता, या मुझे रहने को अच्छा घर नहीं है । वो बस खुश रहती है । उससे जब पूछा गया की आखिर वो इतनी खुश कैसे है इतनी महंगाई में तो उसने बस इतना बोला की " ज़िंदगी 300 रुपये मे भी गुज़ारी जा सकती है और 3 लाख भी कम पड़ जाते है " और इस एक पंक्ति ने मेरे हृदय को झंझोढ़ कर रख दिया । हाँ ये मानता हूँ कि भौतिक सुविधाएँ भी ज़रूरी हो जाती हैं आज के वक़्त में, पर मुद्दा वो नहीं है । मुद्दा है कि क्या हमारे पास जितना है हम उसमे संतुष्ट रह सकते हैं , खुश रह सकते हैं । अगर हाँ तो आप हुमेशा खुश रहेंगे और हुमेशा हँसते खेलते जिएंगे । आप अभी भी बचपन ही जी रहे हैं । वो बचपन जी रहे हैं जहां आपके ज़हन में चिंता नहीं अपितु ये एक जो ज़िंदगी मिली है उसे खुल के जीने कि चाहत है और ऐसा करने पर आप न ही बेतुकी बीमारियों से ग्रसित रहेंगे और ना ही किसी और चीज़ से बल्कि आप अपनी ज़िंदगी को खुलके जिएंगे और ज़िंदगी के सही माएने आपको समझ आएंगे । ज़िंदगी ज़िंदगी जैसी लगेगी ना कि एक बोझ ।
एक और बात जो कि मेरे ज़हन मे आती है जब भी मैं आज के समय को देखता हूँ कि हम अपनी इस व्यस्तता के चलते अपने बच्चों पर भी ध्यान नहीं दे पाते जिसके चलते बचपन से ही उनमे बचपन मे दिये जाने वाले संस्कारों का ह्रास होता जा रहा है । आज हमारी माँ , माँ नहीं रही वो मम्मी (mummy) बन गयी है । पिता हमारे डैड (dad) हो गए है । हमारा देश जो कि ऋषि - मुनियों कि कर्मस्थली थी जो कि सोने कि चिढ़िया थी आज क्या से क्या हो गयी है । सोने कि चिढ़िया हमारे यहाँ के धन - धान्य को नहीं अपितु हमारे सुनहरे संस्कारों को कहा गया है । कहाँ गयी वो परंपरा जहां बच्चे अपने माँ - बाप के पैर छूकर आशीर्वाद लिया करते थे जो कि अब हाए डैड और हाए मौम में परिवर्तित हो गयी है । हाँ दुनिया बदल रही है हमे भी आधुनीकरण कि ज़रूरत है । आधुनिक्ता कि और अग्रसर रहिए लेकिन अपनी संस्कृति और अपने देश के नैतिक मूल्यों के बदले नहीं । हमारे देश के बच्चे जो कि कभी पकड़म - पकड़ी और छुपन - छुपाई जैसे खेल खेलते थे आज वो मार - धाड़ और क्र्रूरता से भरे खेल खेलते हैं जैसी कि काउंटर स्ट्राइक ,आई .जी .आई ,इत्यादि । बचपन से ही बच्चों कि मानसिकता में मर्मता नहीं रह जाती और खून - खराबा भर जाता है तो आप इससे आशा ही क्या कर सकते हैं ..?? क्या इस तरह से ये नौजवान बनकर देश का नाम रौशन करेंगे ..?? आप खुद ही सोचिए ऐसे युवा स्वामी विवेकानंद बनकर देश का नाम रौशन करेंगे या अजमल कसाब जैसे बनकर देश का और अपने माँ - बाप का नाम बर्बाद करेंगे । हमारा देश जो कि पतन कि ओर अग्रसर है उसका यही कारण है अगर हमारे देश को वापस से सोने कि चिढ़िया बनाना है तो अपने संस्कारों को वापस बनाइये । अपनी खुशी को वापस लाइये , अपने हँसते खेलते बचपन को वापस लाइये जो कि शायद अब बड़ा होता जा रहा है । एक बार उस बचपन को जीकर देखिये क्यूंकि यही बचपन हमे खुश और सम्पन्न बनाता है । रोक लीजिये इस बचपन को बड़ा होने से , बचपन बड़ा हो रहा है । । ।




